14/08/2025
हमने माना…
हमने माना बाबूजी आपने फकीरी देखी है,
तो क्या अब पूरे देश से भीख मंगवायेंगे ?
हमने माना साहब आपने बहुत गरीबी देखी है,
तो क्या अब हर घर को खाली पेट सुलाएंगे?
हमने माना बाबूजी आपने चाय बेची है,
तो क्या अब हर युवा से चाय ही बिकवाएंगे?
हमने माना साहब पकौड़ों का कारोबार अच्छा है,
तो क्या अब पकौड़ों की दुकान ही खुलवाएंगे?
— क्या कतार में खड़े रहना ही अब देशभक्ति है?
एक नई सोच
एक तरफ हैं आँकड़े जो विकास की गाथा गाते हैं,
दूजी तरफ हैं घर जो रोज़ रोटी को तरस जाते हैं।
सपनों के महल और डिजिटल चमक की बातें हैं,
मगर हक़ीक़त में भूखे पेट और सूखी रातों की सौगातें हैं।
सड़कों पर वादे और पोस्टर बड़े-बड़े हैं,
और राशन की दुकान पे लोग हताश खड़े हैं।
नौकरियों की बात तो विज्ञापन में ही सिमट गई,
बेरोज़गारी की नदी में आशा की नाव बह गई।
— महंगाई के इस जंगल में, रोटी अब एक दुर्लभ फल है।
महंगाई का सुरूर
पेट्रोल और डीज़ल की कीमत आसमान छू रही है,
गाड़ी तो छोड़ो, रिक्शे वाले की भी कमर झुक रही है।
गैस का सिलेंडर हज़ार पार कर चुका है,
हर गृहिणी का बजट अब तो बेहाल हो चुका है।
महंगाई का ऐसा राक्षस हर घर में घुस गया है,
आम आदमी की गाढ़ी कमाई का हर टुकड़ा निगल गया है।
अब तो सब्ज़ी, दाल और मसालों में भी गणित है,
मज़दूर की मेहनत की क़ीमत बस दो जून की ही ख़बर है।
— अब रसोई में स्वाद नहीं, बस हिसाब पकता है।
सवाल और जवाब
आपने विकास का एक नया नारा दे दिया,
मगर हमें तो महंगाई की खाई में ढकेल दिया।
बड़े-बड़े प्रोजेक्ट और चमकती योजनाओं की बात है,
पर गरीब की झोंपड़ी में तो अंधेरी रात है।
सैकड़ों करोड़ों की योजनाएँ और कर्ज़े का हिसाब है,
लेकिन आम आदमी के लिए तो बस आँसू और तनाव है।
— बताओ साहब, ये खुशहाली कैसी है,
जहाँ हमारा भविष्य आज के आज ही बिखर गया है?
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