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जेब में किराए के भी पैसे नहीं होते,
पर दिल में हौसले का बैंक हमेशा भरा रहता था।





🏏 "सिराज – मिट्टी से महाकाव्य तक"

हैदराबाद की तंग गलियों में,
एक लड़का धूल उड़ाते टेनिस बॉल से खेलता था।
ना महंगे जूते, ना नेट प्रैक्टिस की सुविधा…
बस एक जिद, एक सपना — भारत के लिए खेलना।

उसके अब्बा ऑटो चलाते थे,
माँ घर के कोने में बैठकर दुआएं करती थीं।
अक्सर जेब में किराए के भी पैसे नहीं होते,
पर दिल में हौसले का बैंक हमेशा भरा रहता था।

समय बीता… सिराज की मेहनत ने रास्ता बनाया,
पर ज़िंदगी ने भी कम इम्तिहान नहीं लिए।
अंतरराष्ट्रीय डेब्यू से ठीक पहले उसके अब्बा का इंतकाल हुआ।
दुनिया कहती थी, "वापस लौट जाओ,"
लेकिन सिराज ने सिर्फ़ एक जवाब दिया —
"अब्बा ने मुझे यहां तक पहुंचाया है,
मैं उनके सपने अधूरे नहीं छोड़ सकता।"


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और फिर आया वो आखिरी टेस्ट…
टीम को जरूरत थी एक योद्धा की,
जो सिर्फ़ गेंद नहीं, जज़्बा फेंके।

जब मैदान पर सिराज दौड़ता था,
तो हर रन-अप में उसके बचपन की भूख थी,
हर बाउंसर में उसकी मां की ममता,
हर यॉर्कर में उसकी मोहब्बत भारत के लिए।

उसकी आंखों में सिर्फ़ एक चमक थी —
"ये मेरी आखिरी सांस तक की लड़ाई है।"
पसीना उसके माथे से बह रहा था,
लेकिन उस पसीने में डर नहीं, आग थी।
एक-एक बल्लेबाज़ उसके सामने
खुद को किले के अंदर घिरा हुआ महसूस कर रहा था।
हर विकेट गिरते ही,
वो सिर्फ़ अपनी टीम के लिए नहीं,
बल्कि उन लाखों सपने देखने वाले बच्चों के लिए लड़ रहा था
जो गलियों से निकलकर दुनिया जीतना चाहते हैं।


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और जब आखिरी गेंद फेंकी गई,
तो स्कोरबोर्ड सिर्फ़ आंकड़े दिखा रहा था…
लेकिन असली जीत तो वो थी
जो सिराज के चेहरे पर,
उसकी आंखों की नमी और मुस्कान में लिखी थी।

उसने साबित कर दिया —
"मेहनत से बड़ा कोई टैलेंट नहीं,
और जज़्बे से बड़ी कोई ताकत नहीं।"

मिट्टी के उस लड़के ने
भारत की मिट्टी को गौरवान्वित कर दिया।


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अगर इसे पढ़ते समय आपकी आंखें थोड़ी भी नम हुईं,
तो समझ लीजिए —
सिराज का संघर्ष सिर्फ़ उसकी कहानी नहीं,
हम सबकी कहानी है जो सपनों के लिए लड़ते हैं।




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