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"ग़ज़ा की मासूम आँखें: जंग के मलबे से उठती कहानियाँ" kahani palestine ki

 

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माँ की गोद में टूटा सपना​ | हबीबा की अधूरी मुस्काना | भूख से लड़ाई, जो असमान थी | दम तोड़ती मासूमियती | माँ की चीख और दुनिया की खामोशी |

 माँ की गोद में दम तोड़ती हबीबा आर्टिकल


माँ की गोद में टूटा सपना – हबीबा की अधूरी मुस्कान

गाज़ा की टूटी हुई दीवारों के बीच, एक माँ अपने बच्चे को सीने से लगाए बैठी थी। बच्ची का नाम था हबीबा
सिर्फ़ छह महीने की उम्र, गुलाबी गालों वाली नन्हीं परी।
लेकिन उस नन्हीं मुस्कान के पीछे छिपी थी भूख, दर्द और मौत की परछाईं।


भूख से लड़ाई, जो असमान थी

गाज़ा में महीनों से दूध पाउडर, दवाइयाँ और बुनियादी खाना तक गायब है।
दुकानों के शटर जंग खाकर जकड़े हुए हैं, और जो थोड़ा-बहुत बचा है, वह अमीरों या ब्लैक मार्केट वालों तक सीमित है।

हबीबा की माँ हर रात उसे अपने आँचल में छुपाती, उसे झुलाकर सुलाने की कोशिश करती।
लेकिन बच्ची की भूख का रोना उसके सीने को चीरकर रख देता।

"मेरे पास आँचल है, लेकिन दूध नहीं है...
मेरे पास दुआएँ हैं, लेकिन दवाइयाँ नहीं हैं..."

यह हर माँ की वही चीख है, जो गाज़ा की दीवारों से टकराती है और फिर वापस उसके दिल को छलनी कर जाती है।


दम तोड़ती मासूमियत

धीरे-धीरे हबीबा का जिस्म कमजोर होने लगा।
गुलाबी गाल पीले पड़ गए, आँखों की चमक बुझ गई।
नन्हें हाथ, जो कभी अपनी माँ की उंगलियाँ पकड़ते थे, अब ढीले पड़ने लगे।

हबीबा की साँसें रुक-रुककर चल रही थीं।
उसकी माँ ने उसे अपनी गोद में कसकर पकड़ लिया, मानो अपनी जान से भी ज्यादा संभालना चाहती हो।

लेकिन मौत के पंजे उससे कहीं ज्यादा ताक़तवर थे।
कुछ ही पलों में हबीबा की मासूम साँसें थम गईं।

गोद में पड़ी वो नन्हीं जान अब शांत थी।
उसकी आँखें बंद थीं, मानो वो भी अब इस बेरहम दुनिया को देखना नहीं चाहती थी।


माँ की चीख और दुनिया की खामोशी

उसकी माँ चीखती रही –
"या अल्लाह! मेरी बच्ची को लौटा दे, उसका कसूर क्या था?"

लेकिन वहाँ सिर्फ़ सन्नाटा था।
सिर्फ़ टूटी हुई दीवारों की गूँज और बेबस आँसुओं की आवाज़।

गाज़ा के हर घर में कोई न कोई हबीबा है।
कोई भूख से तड़प रहा है, कोई दवाइयों के बिना दम तोड़ रहा है।
और दुनिया?
वो सिर्फ़ देख रही है, चुप है।


इंसानियत का सवाल

हबीबा की मौत किसी एक बच्ची की कहानी नहीं है।
यह पूरी इंसानियत पर सवाल है।

👉 क्या 21वीं सदी में बच्चे भूख से मरने चाहिए?
👉 क्या एक माँ को अपनी गोद में बच्ची को दम तोड़ते देखना चाहिए?
👉 और अगर यह सब हो रहा है, तो क्या सचमुच हम इंसानियत के दौर में जी रहे हैं?


नतीजा – अधूरी मुस्कान की गवाही

हबीबा तो चली गई।
लेकिन उसकी अधूरी मुस्कान, उसकी माँ की चीखें, और उसका नन्हा सा जिस्म अब पूरी दुनिया की गवाही बन गया है।

यह गवाही है उस दौर की, जहाँ बच्चे दूध के लिए तड़पते हैं,
माँ-बाप बेबस होकर रोते हैं,
और दुनिया की बड़ी ताक़तें सिर्फ़ “मीटिंग्स और स्टेटमेंट्स” देती हैं।


✍️ यह लेख हबीबा के नाम – उस बच्ची के लिए, जिसने सिर्फ़ 6 महीने की उम्र में भूख से लड़ते-लड़ते इंसानियत को आईना दिखा दिया।



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