ब्लॉग: अब्दुल्लाह – भूख से हार गया मासूम सपना
गाज़ा की उस तंग गली में, जहाँ न रोशनी पहुँचती है न उम्मीद, एक नन्हीं सी आवाज़ गूँजी थी –
"मुझे भूख लगी है।"
ये आवाज़ 4 साल के अब्दुल्लाह अबू ज़रका की थी। वो आवाज़ जिसने पूरी दुनिया को हिला दिया। उसकी माँ के आँसू और बेटे की सिसकियाँ मानो इंसानियत से सवाल कर रही थीं – क्या किसी बच्चे को भूख से तड़पकर रोना पड़ना चाहिए?
देर से पहुँची मदद
वीडियो वायरल हुआ, तुर्की ने पहल की, कूटनीतिक रास्ते खुले। अब्दुल्लाह को गाज़ा से निकालकर अदाना सिटी हॉस्पिटल (तुर्की) ले जाया गया।
पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। महीनों की भूख, दवाइयों और इलाज की कमी ने उसके नन्हें शरीर को इतना तोड़ दिया था कि वह डॉक्टरों के लाख प्रयासों के बाद भी ज़िंदगी की जंग हार गया।
पिता की मजबूरी, माँ की चीख
उसके पिता ने कहा –
"बच्चे को रोज़ कमजोर होते देखना सबसे बड़ा दर्द है।"
उसकी माँ, जिसने अपने बेटे को रोते-रोते भूख से दम तोड़ते देखा, अब केवल बहन हबीबा की ज़िंदगी की दुआ कर रही है। हबीबा अभी उसी तुर्की अस्पताल में इलाज पर है।
अब्दुल्लाह – एक प्रतीक
अब्दुल्लाह सिर्फ एक बच्चा नहीं था। वह उस पूरे गाज़ा का प्रतीक बन चुका है जहाँ बच्चे भूख से तड़पते हैं, माँ-बाप बेबसी से टूटते हैं और दुनिया खामोश रहती है।
उसकी मौत ने हमें झकझोर दिया है –
👉 सीमाएं बंद होने से इलाज तक पहुँचना मौत और ज़िंदगी का सवाल बन चुका है।
👉 हर देरी बच्चों की जान ले रही है।
👉 और हर आँसू, हर चीख हमारी इंसानियत पर सवाल है।
एक सवाल हम सबके लिए
अब्दुल्लाह चला गया। पीछे छोड़ गया एक कड़वा सच –
अगर दुनिया ने अब भी आँखें मूँदी रखीं, तो और कितने अब्दुल्लाह भूख से मरेंगे?
✍️ यह ब्लॉग सिर्फ एक बच्चे की कहानी नहीं, बल्कि हमारी इंसानियत की परीक्षा है।
Post a Comment