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धनखड़ जी की विदाई: संस्कार की जगह सत्ता का व्यापार


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📰 लोकतंत्र का आईना

21 अगस्त 2025 | विशेष संपादकीय


धनखड़ की विदाई: संस्कार की जगह सत्ता का व्यापार

✍️ विशेष लेख

व्यवहार ही संस्कार है।
लेकिन भारत की संसद ने बीते दिनों उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ को जो विदाई दी, उसने इस पंक्ति को एक कड़वा राजनीतिक सच बना दिया।


🎭 विदाई का दृश्य, लोकतंत्र की बेइज़्ज़ती

विदाई समारोह लोकतंत्र का गौरव होना चाहिए था, लेकिन यह तानों, हंसी और असहमति का रंगमंच बन गया।
यह दृश्य केवल धनखड़ जी का अपमान नहीं था, बल्कि देश की संवैधानिक मर्यादाओं का भी अपमान था।

पर सवाल यह भी है—
क्या यह सब अचानक हुआ, या वर्षों से खींचे गए असंतुलन और पक्षपात का नतीजा था?


रीढ़हीन नेतृत्व की चुनौती

धनखड़ जी पर सबसे बड़ा आरोप यही रहा कि वे स्वतंत्र नहीं दिखे।
राज्यसभा के सभापति का पद विपक्ष और सत्ता के बीच संतुलन साधने का है।
लेकिन धनखड़ जी के कार्यकाल में यह संतुलन बार-बार टूटा।
सत्ता को खुश करने की कोशिशें इतनी साफ झलकती रहीं कि उनकी कुर्सी “रीढ़विहीन नेतृत्व” का प्रतीक बन गई।

क्या लोकतंत्र को ऐसे सभापति की ज़रूरत है जो संविधान से पहले सत्ता के प्रति जवाबदेह हो?


🧭 संस्कार बनाम सत्ता का खेल

लोकतंत्र में पद से बड़ा संस्कार है।
जो व्यक्ति अपने आचरण से निष्पक्षता और गरिमा दिखाता है, वही इतिहास में सम्मान के साथ दर्ज होता है।

धनखड़ जी की विदाई ने यह संदेश दिया कि –

  • सत्ता-परस्त राजनीति से ताली तो मिल सकती है, पर सम्मानजनक विदाई नहीं।
  • अगर सभापति “सत्तापति” बन जाए, तो लोकतंत्र का संतुलन टूट जाता है।

🔎 राजनीतिक निहितार्थ

  • सत्ता पक्ष यह संदेश देना चाहता है कि विदाई की कड़वाहट विपक्ष की नासमझी है।
  • विपक्ष का तर्क है कि धनखड़ जी ने सदन की गरिमा गिराई और सत्ता के प्रवक्ता बनकर काम किया।
  • जनता के लिए यह दृश्य लोकतंत्र की गिरती साख का प्रतीक है।

निष्कर्ष

धनखड़ जी की विदाई सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र के भीतर हो रही दरारों की गवाही है।
भारत को ऐसे सभापति चाहिए जिनकी रीढ़ सीधी हो, जिनका व्यवहार ही संस्कार बने—न कि सत्ता का व्यापार।




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