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हम खबरों में से खबरें निकालते हैं बाल की खाल की तरह, New Delhi Rizwan
एक पिस्सू बराबर देश जो जिस देश के रहमो करम पर परवान चढ़ा आज उसी देश को बर्बाद कर चूका है
दुनिया भर में, जब भी ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी की बात होती है, फ़िलिस्तीन का ज़िक्र सबसे पहले आता है। दशकों से वहाँ के लोगों पर जो ज़ुल्म और अमानवीयता हो रही है, उसने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है। घर उजाड़े जा रहे हैं, मासूम बच्चे मारे जा रहे हैं, और बुनियादी इंसानी हक़ छीन लिए गए हैं।
ऐसे में, एक सवाल बहुत अहम हो जाता है: ज़ुल्म के ख़िलाफ़ हमारी क्या ज़िम्मेदारी है? क्या हमें सिर्फ़ दूर से यह सब देखना चाहिए, या हमें आवाज़ उठानी चाहिए?
ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़: फ़िलिस्तीन और हदीस की तालीम
दुनिया भर में, जब भी ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी की बात होती है, फ़िलिस्तीन का ज़िक्र सबसे पहले आता है। दशकों से वहाँ के लोगों पर जो ज़ुल्म और अमानवीयता हो रही है, उसने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है। घर उजाड़े जा रहे हैं, मासूम बच्चे मारे जा रहे हैं, और बुनियादी इंसानी हक़ छीन लिए गए हैं।
ऐसे में, एक सवाल बहुत अहम हो जाता है: ज़ुल्म के ख़िलाफ़ हमारी क्या ज़िम्मेदारी है? क्या हमें सिर्फ़ दूर से यह सब देखना चाहिए, या हमें आवाज़ उठानी चाहिए?
हदीस और हमारी ज़िम्मेदारी
रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
"जब लोग ज़ालिम को देखें और उसे ज़ुल्म करने से न रोकें, तो क़रीब है कि अल्लाह उन सब पर अपनी तरफ़ से अज़ाब भेज दे।" (तिर्मिज़ी और अबू दाऊद)
यह हदीस सिर्फ़ एक नसीहत नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। यह हमें साफ़ तौर पर बताती है कि ज़ुल्म को होते हुए देखना और ख़ामोश रहना खुद एक गुनाह है। यह हम सबको एक ज़िम्मेदारी देता है:
आवाज़ उठाना: अगर हम ज़ुल्म को रोकने की ताक़त रखते हैं (जैसे कि सोशल मीडिया, विरोध प्रदर्शन, या अपनी सरकार पर दबाव डालकर), तो हमें ख़ामोश नहीं रहना चाहिए। हमें फ़िलिस्तीन के लोगों के लिए बोलना चाहिए।
ज़ुल्म का हिस्सा न बनना: फ़िलिस्तीनियों पर ज़ुल्म करने वालों का समर्थन करना या उनसे रिश्ता रखना इस हदीस की रूह के ख़िलाफ़ है। हमें ऐसे हर काम से बचना चाहिए जो इस ज़ुल्म को बढ़ावा देता हो।
दुआ और मदद: अगर हम सीधे तौर पर कुछ नहीं कर सकते, तो कम से कम हमें दुआ करनी चाहिए और दान देकर उनकी मदद करनी चाहिए। यह भी ज़ुल्म के ख़िलाफ़ एक तरह का इंक़लाब है।
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Credit To Al Jazeera |
ख़ामोशी की क़ीमत
यह हदीस हमें सिखाती है कि अगर हम अपनी ताक़त का इस्तेमाल ज़ुल्म रोकने के लिए नहीं करेंगे, तो हम भी उस ज़ुल्म के गुनाह में शरीक माने जाएँगे। फ़िलिस्तीन में जो हो रहा है, वह सिर्फ़ वहाँ के लोगों का मसला नहीं है, बल्कि यह पूरी इंसानियत का मसला है।
ख़ामोशी ज़ालिम का सबसे बड़ा हथियार है। जब दुनिया ख़ामोश हो जाती है, तो ज़ालिम को लगता है कि उसे कोई रोकने वाला नहीं। यही वजह है कि आज फ़िलिस्तीन में ज़ुल्म और बढ़ता जा रहा है। इस ज़ुल्म को रोकना हर उस इंसान की ज़िम्मेदारी है जो न्याय और इंसानियत में विश्वास रखता है।
हमें याद रखना चाहिए कि एक दिन हमें अल्लाह के सामने हिसाब देना है, और उस दिन हमारी ख़ामोशी हमारी सबसे बड़ी हार बन सकती है।
पूरी रिपोर्ट
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ताज़ा हालात
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अल-जज़ीरा की रिपोर्ट के अनुसार, हालिया इज़रायली हमलों में 20 से अधिक फ़िलिस्तीनी मारे गए।
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ग़ज़ा सिटी और उसके आसपास लगातार बमबारी से घर, दुकानें, सड़कें सब मलबे में बदल रही हैं।
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लोग विस्थापित होकर अस्थायी शिविरों और स्कूलों में शरण ले रहे हैं।
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मानवीय संकट
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अस्पतालों पर हमला और दवाइयों की कमी ने हालात और गंभीर बना दिए हैं।
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पीने का पानी, बिजली और खाने की सप्लाई लगभग ठप हो चुकी है।
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राहत एजेंसियों का कहना है कि यह हालात मानवता के लिए शर्मनाक चुनौती हैं।
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दुनिया की चुप्पी
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संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने “गंभीर चिंता” जताई है, मगर अब तक कोई ठोस दबाव नहीं बनाया गया।
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पश्चिमी ताक़तों की राजनीतिक मजबूरियाँ इस नरसंहार पर पर्दा डाल रही हैं।
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ग़ज़ा की जनता अब सवाल कर रही है: “क्या हमारी चीखें इंसानियत तक नहीं पहुँचतीं?”
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आगे का खतरा
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अगर ये हालात जारी रहे तो ग़ज़ा की पीढ़ियाँ पूरी तरह उजड़ सकती हैं।
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विद्रोह और गुस्सा अब केवल मध्य-पूर्व ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में असर डाल सकता है।
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निष्कर्ष
ग़ज़ा आज केवल एक भूगोल नहीं रहा, यह मानवता का इम्तहान बन चुका है। हर बम, हर चीख़, हर बेघर बच्चा यही पूछ रहा है — “दुनिया कब जागेगी?” और शायद यह सब्र टूटने पर इतिहास को बदल देगा।
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