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आवारा कुत्तों का बढ़ता आतंक: रेबीज़ का खतरा और समाज की लापरवाही"


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🐕 आवारा कुत्तों का आतंक: मासूमों की ज़िंदगी दांव पर | भारत दुनिया में रेबीज़ मामलों में नंबर-वन देशों में गिना जाता है | वैक्सीन की कमी, जागरूकता की कमी और कुत्तों की बढ़ती संख्या | ⚖️ सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण | कुत्तों का झुंड स्कूल जाने वाले बच्चों का पीछा करता है |समझ गया भाई 👍

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26 अगस्त 2025

📰बड़ी खबर 

आवारा कुत्तों का बढ़ता आतंक: रेबीज़ का खतरा 

और समाज की लापरवाही" 

📰विश्लेषण रिपोर्ट 

🐕आवारा कुत्तों का आतंक : मासूमों की ज़िंदगियाँ दाव पर,

नई दिल्ली/लखनऊ, 26 अगस्त 2025 —
सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे एक वीडियो ने एक बार फिर भारत में आवारा कुत्तों के आतंक और रेबीज़ जैसी घातक बीमारी पर बहस को गरमा दिया है। वीडियो में एक मासूम बच्चा अस्पताल में उपचार लेता दिखाई दे रहा है, जबकि बैकग्राउंड में लिखा है — “For all stray dog lovers, have you ever imagined or seen the horror of rabies?”


📌समस्या की गहराई,

भारत दुनिया में रेबीज़ मामलों में नंबर-वन देशों में गिना जाता है। WHO के आंकड़ों के मुताबिक, हर साल लगभग 18,000-20,000 मौतें रेबीज़ के कारण होती हैं, जिनमें से अधिकतर पीड़ित 15 साल से कम उम्र के बच्चे होते हैं।
ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में वैक्सीन की कमी, जागरूकता की कमी और कुत्तों की बढ़ती संख्या ने स्थिति को और खराब कर दिया है।

⚖️ सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण \

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को निर्देश दिया कि आवारा कुत्तों को मारने के बजाय उनका वैक्सीनेशन और नसबंदी (ABC Program) सुनिश्चित किया जाए। कोर्ट का मानना है कि “मानव और पशु — दोनों की सुरक्षा” जरूरी है।
लेकिन दूसरी तरफ, पीड़ित परिवारों का दर्द है कि “कागज़ी आदेश ज़मीन पर असर क्यों नहीं दिखाते?”

🗣️समाज में दो धाराएं 

  1. एनिमल लवर्स – मानते हैं कि आवारा कुत्तों को मारना अमानवीय है।
  2. आम नागरिक – तर्क देते हैं कि जब मासूम बच्चों की जान जा रही है तो मानव सुरक्षा प्राथमिकता होनी चाहिए।

🚨जमीनी हकीकत 

  • कई शहरों में कुत्तों का झुंड स्कूल जाने वाले बच्चों का पीछा करता है
  • रेबीज़ का इलाज महंगा और तकलीफ़देह है, और कई गरीब परिवार इसे वहन नहीं कर पाते।
  • गांव-कस्बों में वैक्सीन आसानी से उपलब्ध नहीं होती, जिससे स्थिति और गंभीर बनती है।

🔍 निष्कर्ष

वीडियो केवल एक बच्चे का दर्द नहीं दिखाता, बल्कि यह पूरे समाज और सरकार के लिए आईना है। सवाल यह है कि क्या हम समय रहते संतुलित नीति बना पाएंगे? या फिर हर साल हजारों मासूमों की जान इसी तरह कुर्बान होती रहेगी?



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